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११ सितंबर , ११५७
मधुर मां, ऐसा क्यों होता है कि हम पहली दृष्टिमें ही कुछके प्रति आकर्षित हो जाते है और दूसरोंके प्रति हटाव अनुभव करते है?'
सामान्यत: यह प्राणिक सादृश्य एवं समानताओंपर आधारत होता है, किसी और चीजपर नहीं । कुछ प्राणिक स्पन्दन परस्पर-अनुकूल होते है और कुछ नहीं होते । सामान्यत. यही बात होती हो और कुछ नहीं । यह प्राणिक रसायन-विद्या है ।
इससे भिन्न दृष्टिकोण अपनानेके लिये व्यक्तिको बहुत गहरी और बहुत ही स्पष्टदर्शी चेतनामें स्थित होना चाहिये । चैत्य चेतनापर आधारित एक ऐसा आन्तरिक बोध होता है जो हमें जात देता है कि किन लोगोंकी अभीप्सा और उद्देश्य हमारे जैसे है और कौन मार्गपर हमारे संगी हो सकते है और वह बोध तुम्हें, यह स्पष्ट दृष्टि भी प्रदान करता है कि किन लोगों. का मार्ग बहुत भिन्न है, या किनमें ऐसी शक्तियां है जो तुम्हारे लिये विरोधी और तुम्हारी प्रगतिमें हानि पहुँचानेवाली हों सकतीं है । पर इस बोधकों प्राप्त करनेके लिये व्यक्तिको अनन्य भावसे अपनी आध्यात्मिक उन्नति एवं सर्वांगीण सिद्धिमें ही निमग्न रहना चाहिये । किन्तु ऐसा प्रायः होता नहीं । और सामान्यत:, जब व्यक्तिको यह अन्तर्दृष्टि प्राप्त हो जाती है तो इसका परिणाम आकर्षण या विकर्षण नहीं होता, बल्कि यह एक, यूं कह सकते है कि अत्यन्त ''वस्तुगत'' ज्ञान होता है, और एक प्रकारकी
१७० आन्तरिक निश्चयता होती है जो तुम्हें आकर्षणों या विकर्षणोंद्वारा नहीं, वरन् शान्ति ओर विवेकसे काम करनेके लिये' प्रेरित करती है ।
अतः सामान्य रूपसे और लगभग पूर्ण रूपसे यह कहा जा सकता है कि जिन लोगोंमें अत्यन्त प्रबल और आवेग-युक्त राग व द्वेष हाते है वें प्राणिक चेतनामें निवास करते हैं । उनके साथ मानसिक समानताएं भी मिली रह सकती हैं, अर्थात् ऐसे बुद्धिशाली व्यक्ति होते है जो समान प्रवृत्तियोंसे संपर्क बनाना. पसन्द करते है, पर वहां भी -- ये वे लोग होते. है जो बौद्धिक रूपसे बहुत ऊंचे- स्तरपर होते है - उसका अधिक ठीक रूप यही होता है कि उन्हें संपर्कमें कम या अधिक सर्वानुमति होनी है, कुछ ऐसी चीज जो अधिक शान्त और अनासक्त होती है । व्यक्ति कुछके साथ बातचीत करके प्रसन्न होता है जब कि दूसरोंके प्रति जरा भी आकर्षण नहीं होता । वहां कोई लाभ नहीं दिखायी देता । इस संपर्कमें थोडी दूरी रहती है और यह शान्त होता है, यह बुद्धिके' क्षेत्रसे अधिक सम्बन्धित है । परन्तु राग और द्वेष' स्पष्ट ही प्राणिक जगत्की चीजों है । हा तो, जैसे एक भौतिक रसायन-विद्या है उसी तरह एक प्राणिक रसायन-विद्या भी 'है. कुछ शरीर ऐसे होते हैं जो एक-दूसरेसे दूर हटते है जब कि कुछ आकृष्ट करते हैं, ऐसे पदार्थ होते है जो परस्पर मिल जाते है और ऐसे -मी होते हैं जिनके मिलनेसे विस्फोट होता है, यह भी ऐसी ही बात है । कुछ प्राणिक स्पन्दन ऐसे हाते है जिनमे समस्वरता होती है और इतनी अधिक होती है कि सौमें निन्यानवे बार लोग इन संभावनाओंको उस रूपमें लें लेते हैं जिसे मनुष्य प्रेम कहते है और एकाएक वे महसूस करने लगते है : ''ओह! वह पुरुष, उसीके लिये तोम प्रतीक्षा कर रही थी,'' ''ओह! वह लड़की, उसीकी ता मुझे खोज थी । '' (हंसती हुई) और वे एक-दूसरेकी ओर दौड पड़ते है, - जबतक कि वे यह नहीं जान लेते कि ये बहुत ही ऊपरी बातें है और देर- तक नही टिकती । तो बात ऐसी है । इसलिये जो योग करना चाहते है उन्हें पहली सलाह यही दी जाती है : ''राग-द्वेषसे ऊपर उठा' ।'' यह ऐसी चीज है जिसमे कुछ भी गहरी वास्तविकता नहीं होती और यह कम-से-कम तुम्हें ऐसी कठिनाइयोंमें डाल सकती है जिन्हें, कभी-कभी जीतना बहुत ही कठिन होता है । इन चीजोंसे तुम्हारा जीवन बरबाद हों जा सकता है । और सर्वोत्तम तो यह है कि इन चीजोंकी ओर बिलकुल ही ध्यान न दो -- थोड़ा अन्तमुर्ख होओ ओर अपने-आपसे पूछो कि किस कारण -- यह कारण अधिक रहस्यमय नहीं होता '-- तुम इस व्यक्तिसे मिलना पसन्द करने हो, और दूसरेसे नही ।
१७१ परन्तु एक ऐ सा क्षण होता है जब व्यक्ति पूरी तरह अपनी साधनामें लगा होता है, तब वह अनुभव कर सकता है ( पर बहुत सूक्ष्म और बहुत ही शान्त रूपमें) कि यह सम्पर्क-विशेष साधनाके लिये हितकर है । और दूसरा हानिकर है । परन्तु वह सदा, ऐसा कह सकते है कि, बहुत अधिक ' 'तटस्थ' ' रूप लेता है । और यहांतक कि प्राणके इन तथाकथित आकर्षणों औ र विकर्षणोका विरोधी भी होता है; अधिकतर इसका उनसे कोई सम्बन्ध नहीं होता ।
अतएव, सबसे अच्छी बात यह है कि इन बातोंसे जरा दूर रहकर इन- पर दृष्टिपात करो ओर अपनेको इन चीजोंकी व्यर्थताका उपदेश दो ।
स्पष्ट ही, कुछ प्रकृतिया प्राय. मूलतः बुरी होती है, ये सत्ताएं जन्मसे ही दुष्ट होती हैं और दूसरोंको हानि पहुंचाना पसन्द करती हैं, ओर युक्ति- युक्त रूपमें, यदि तुम बिलकुल स्वाभाविक अवस्थामें होओ, बिगड़े न होओ, सहज प्राकृतिक अवस्थामें होओ जैसे कि पशु होते है ( इस दृष्टिसे वे मनुष्योंसे बहुत अच्छे होते है, विकृति मनुष्यजातिसे शुरू होती है), तो तुम अलग रहोगे, जैसे तुम मूलत: हानिकर वस्तुसे परे रहते हों । परन्तु सौभाग्यसे ये लोग बहुत नहीं होते और जीवनमें जिन लोंगोंसे तुम मिलते हो वे सामान्यतया काफी मिश्रित स्वभावके होते है, उनमें भलार्ड और बुराईमें, yऋ कह सकते है कि, एक प्रकारका संतुलन रहता है और उनके साथ तुम्हारा सम्बन्ध भी एक ही साथ भला औ र बुरा होता है । सों, इसका कोई कारण नहीं कि तुम उनके प्रति तीव्र विद्वेषका अनुभव क रो क्योंकि तुम स्वयं मी वैसे ही, काफी मिश्रित ढंगके व्यक्ति हों ( हस्ते हुए), जैसेको तैसा मिलता है!
यह मी कहा जाता है कि कुछ लोग पिशाच-सदृश होते है औ र जब वे किसी व्यक्तिके पास आते है तो सहज रूपमें उसकी प्राण-शक्ति और बल चूस लेते हैं, उनसे ऐसे ही सावधान रहना चाहिये जैसे किसी भयानक संकटसे रहा जाता है । परन्तु वह भी... यह नही कि उनका अस्तित्व ही नही होता परन्तु वे बहुत नही होते और निश्चित रूपसे इतने पूर्ण रूपसे ( बुरे) नहीं होते कि उनसे मिलनेपर दूर भागनेकी जरूरत पड़े ।
ता', साररूपमें, यदि तुम योगमें उन्नति करना चाहते हों तो करने योग्य पहली बात है अपनी नापसन्दगियोंको जीतना... और अपनी पसन्दगियोंको भी । इन सबपर मुस्कानके साथ नजर डालो ।
( मौन)
१७२ ''एक नयी जाति तब पृथ्वीपर और पार्थिव शरीरमें ऐसे मनो- भय जीवोंकी जाति होगी जो विश्वगत अज्ञानके राज्यकी वर्तमान अवस्थाओंसे मुक्त होगी और इस हदतक मुक्त होगी कि उसे एक पूर्णताप्राप्त एवं ज्योतिर्मय मन प्राप्त होगा । यह मन अतिमानस या 'सत्य-चेतना' की एक छोडी सहायक क्रिया होगा और हर हालतमें उन समस्त संभावनाओंसे भरा होगा जो उस सत्यके प्रतिग्रहीताके रूपमें कार्य कर सकेंगी और कम-से-कम विचार और जीवनमें उसकी द्वितीय कोटिकी क्रिया होगा । यह उसका एक भाग भी हो सकता है जिसे पृथ्वी- पर दिव्य जीवन कहा जाता है और कम-से-कम ज्ञानमें होने- वाले विकासका आरंभ हो सकता ह, जो पूर्णत: या मुख्यतः अज्ञानमें नहीं होगा । यह किस हदतक संभव हो सकेगा, सारी मानवजातिको यह अंतमें अपनेमें समेट लेगा या केवल इसका एक उन्नत भाग ही इसे प्राप्त करेगा, यह इसपर निर्भर होगा कि स्वयं क्रय विकासके अंदर कौन-सा अभिप्राय निहित है, इसपर कि जो भी वैश्व या परात्पर 'संकल्प' विश्वकी गतियोंको निर्धारित करता है उसका अभिप्राय क्या है? ''
(अतिमानसिक अभिव्यक्ति)
क्या यह अभिप्राय अज्ञात है?
क्या तुम इसे जानते हो? जानते हा?
यह स्पष्ट ही है कि विकासका एक उद्देश्य है और अब अध- बीच नहीं रुक सकता ।
तुम इसे जानते हों क्योंकि तुमने श्रीअरविदकी पुस्तकें पडी हैं । परंतु राह-चलते किसी व्यक्तिको लो -- वह चाहे जो भी हो -- और उससे पूछो कि इस विश्वका, इस क्रम-विकासका क्या अभिप्राय है, तो तुम्हें पता चलेगा कि वह क्या उत्तर देता है! यहीं कि वह इस बारेमें कुछ नहीं जानता । स्वभावत:, जिन्होंने श्रीअरविदकी पुस्तकें पडी है और उनका अध्ययन किया है वे समझते है कि वे इस बारेमें कम-से-कम कुछ तो जानते हैं । जब श्रीअरविदने यह लेख लिखा था तो स्पष्ट ही उन्होंने इसे उन लोंगोंके लिये लिखा था जो योग नहीं कर रहे, जिन्होंने उनकी
१७३ पुस्तकें नहीं पढ़ीं ओर जो शारीरिक शिक्षाके काममें लगे हुए है; अत. उन्होंने अपने-आपको उनके स्थानपर रखा ओर उनके विचारोंको व्यक्त किया और उन्हें कुछ आगे ले चलनेकी कोशिश की । उन्होंनें यहा अपना आधार उन्हींको बनाया है जिन्होंने उनकी पुस्तकें नहीं पडी ।
परंतु तुम कहते हो, ''यह स्पष्ट ही नैण । '' यहा ऐसे कई है -- निश्चय ही अनेकों है -- यदि तुम उनमें प्रत्येकसे व्यक्तिगत रूपसे पूछो कि जो. कुछ उन्होंनें पढ़ा है उसे बिना दोहराये इस जागतिक क्रम-विकासमें निहित अभिप्रायके बारेमें वे स्वयं क्या महसूस करते या सोचते है, क्या इसमे कोई अभिप्राय है.. । मुझे नहीं लगता कि ऐसे बहुत मिलेंगे जो पूरी सच्चाईसे कह सकें. ''यह ऐसा है, वैसा है, वह है... यह स्पापुट ही वह है । '' उनमेंसे ऐसे लोग तो होंगे जो श्रीअरविदकी रचनाओंके अंश उद्धत कर सकें, पर वैसे... ।
स्वयं तुम यदि सोचना -- जो कुछ तुमने पढा है उसकी सहायतासे सोचना -- बंद कर दो और अपने व्यक्तिगत अनुभवको व्यक्त करनेकी कोशिश करो तो क्या कोई निश्चिति रहेगी?
मैं' पढ्नेसे, या सुननेसे या ऐसी और चीजोंसे जो परिणाम प्राप्त होता है उसके बारेमें नहीं कह रही, समझे? मैं तो उसके बारेमें कह रही हू जो व्यक्तिके निजी, उसके अपने स्वीय अनुभवका परिणाम है, ऐसी चीज जो उसके लिये इसलिये स्पष्ट है क्योंकि वह उसका अपना निजी अनुभव है -- क्या तुम उसका वर्णन कर सकते ते? कर सकते हो क्या?
जी।
जी!,तो तुम्हें बधाई देती हूं ।
मेरे बावजूद, बात ऐसी है ।
अच्छा, मैं आशा करती हू कि तुम जैसे बहुत-से होंगे । बस, इतना ही ।
मुझमें कई विरोधी तत्व भी हैं, पर फिर भी कुछ चीज है '
हां, यह अच्छी बात है, यह अs--छा है -- यह बहुत अच्छा है ।
तो मैं कह सकती हूं तुमने यहा अपना समय बर्बाद नहीं किया है! (हंसी) तो, इस चीजको अब हम 'अपने अंदर देखेंगे !
(ध्यान)
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